मैं तो समाज के बीच, यानी संसार के बाजार में जलती मशाल (वैराग्य, ज्ञान) लेकर खड़ा हूँ। जो व्यक्ति अपने "घर" यानी अपने अहंकार, लोभ, मोह, कामना और स्वार्थ को खुद ही जलाने को तैयार है - वही मेरे साथ चल सकता है। डूसरे शब्दों में, सच्चे अध्यात्म की राह में वही चल सकता है जो अपने पुराने, झूठे "मैं" को जला सके, जो अपने भीतर की दुनिया बदलने को तैयार है, वही सच्चे अर्थ में कबीर की संगति कर सकता...